पूंजीवाद और साम्यवाद व सोवियत संघ के विघटन का कारण | Reasons for the disintegration of capitalism and communism and the Soviet Union
पूंजीवाद और साम्यवाद विचारधारा (Capitalism and Communism Ideology)
पूंजीवाद और साम्यवाद दो अलग-अलग विचारधाराएं हैं जो समाजवादी सिद्धांतों पर आधारित हैं। इन दो दर्शनों में अंतर इस प्रकार है-
पूंजीवादी विचारधारा (Capitalist Ideology)
पूंजीवाद - पूंजीवाद में पूंजी, अर्थव्यवस्था और व्यापार को महत्वपूर्ण माना
जाता है। पूंजीवादी दर्शन का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना, मालिकाना अधिकार और धन के नियंत्रण का अधिकार होता है।
पूंजीवाद में मालिकाना अधिकार एक महत्वपूर्ण
मान्यता है। यह अधिकार धन, संपत्ति और
संसाधनों के नियंत्रण को संदर्भित करता है। मालिकाना अधिकार के आधार पर संपत्ति के
वितरण में असमानता देखी जा सकती है।
साम्यवादी विचारधारा (Communist Ideology)
साम्यवाद - साम्यवाद में सामाजिक न्याय, समानता और सामुदायिक सुख को प्राथमिकता मिलती है। साम्यवादी दर्शन का मुख्य उद्देश्य समाज में विचारशीलता, समानता, अधिकारों की सुरक्षा, गरीबी और असामान्यता के खिलाफ लड़ाई होता है।
साम्यवाद एक सामाजिक और आर्थिक सिद्धांत है जिसका मुख्य उद्देश्य समानता, न्याय और सामाजिक सुधार को प्रमुखता देना है। इस सिद्धांत के अनुसार, सभी लोगों को सामान अवसर और सुविधाएं मिलनी चाहिए ताकि समाज का समृद्धि और विकास हो सके। साम्यवाद के पक्षधरों का मानना है कि समाज में सामान्य लोगों को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाकर सबका विकास संभव होता है। साम्यवादी दर्शन एक न्यायमूलक समाज का आदर्श है जिसमें असमानता, उत्पीड़न और विभाजन को दूर किया जाता है और सभी लोगों को गरीबी और असामान्यता से मुक्ति मिलती है।
कई देशों ने साम्यवाद को अपनाया है और इसे अपने आर्थिक और सामाजिक नीतियों का मूल मंत्र माना है। कुछ मुख्य साम्यवादी देशों में शामिल हैं-
नेपाल - नेपाल एक लोकतान्त्रिक गणराज्य है और साम्यवादी दर्शन को अपनाता है। यहां संविधान में साम्यवादी नीतियों को महत्व दिया गया है और समाज में अधिकारों की सुरक्षा, गरीबी कमी और सामाजिक सुधार के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है।
चीन - चीन एक साम्यवादी गणराज्य है, जहां
साम्यवाद को अपनाया जाता है। यहां सामाजिक और आर्थिक समानता को महत्व दिया जाता है
और सामाजिक न्याय को प्रमुखता दी जाती है।
समानता सामाजिक और नैतिक मूल्यों का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यह निश्चित करता है कि सभी लोगों को समान अवसर, सुरक्षा और अधिकार मिलना चाहिए। समानता के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जाति, धर्म, लिंग, वर्ग, राष्ट्रीयता या किसी अन्य परिभाषित मानदंड के आधार पर भेदभाव के विषय में प्रतिबंधित नहीं होना चाहिए। समानता के माध्यम से समाज में सामरिकता और न्याय की प्राप्ति होती है।
सोवियत संघ का विघटन (Disintegration of Soviet Union)
सोवियत संघ का विघटन अनेक कारणों से हुआ, जिनमें साम्यवादी विचारधारा का महत्वपूर्ण योगदान था। कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
अर्थव्यवस्था की अस्थिरता - सोवियत संघ के आर्थिक मॉडल में समस्याएं थीं जो व्यापक आर्थिक स्थिरता को प्रभावित कर रही थीं। उच्च वित्तीय बोझ, अव्यवस्थित योजनाओं, और उद्योगों में निजीकरण की कमी इन समस्याओं में से कुछ थीं। इसके परिणामस्वरूप, आर्थिक अस्थिरता और अकारण वृद्धि ने सोवियत संघ की मजबूती को कम किया।
राजनीतिक परिवर्तन - साम्यवादी विचारधारा में प्रभावी राजनीतिक परिवर्तन हुए, जिसके कारण विचारधारा में परिवर्तन और नए आदर्शों की मांग उठी। इसके चलते, संघ के भीतर ही भेदभाव, अधिकारों की कमी और न्याय के प्रश्न उभरने लगे। आगे बढ़ते हुए, साम्यवादी विचारधारा के कारण सोवियत संघ का विघटन हुआ।
राष्ट्रीयता की चुनौती - सोवियत संघ के भीतर विभिन्न राष्ट्रीयताओं के मद्देनजर लड़ाई शुरू हो गई। इससे एकीकरण में कमी हुई और आंतरिक विवाद बढ़ गए।
आर्थिक प्रतिस्पर्धा - सोवियत संघ के आर्थिक उद्योगों में कमी आने के साथ-साथ विश्व बाजार पर उत्पादों की प्रतिस्पर्धा बढ़ी। उच्च लागत, तकनीकी पिछड़ापन, और अव्यवस्थित उत्पादन विधि ने सोवियत संघ की आर्थिक ताकतों को कमजोर किया।
आंतरिक असंतोष - साम्यवादी विचारधारा में
आंतरिक असंतोष का उदय हुआ, जिसमें नागरिकों
की आजादी, मीडिया की स्वतंत्रता,
और मनुष्याधिकारों की मांगें शामिल थीं।
आर्थिक दबाव - शीतयुद्ध ने सोवियत संघ की आर्थिक स्थिति को गंभीर रूप से प्रभावित किया। युद्ध की खर्चे, सैन्य बल के विकास, और अर्थव्यवस्था की अस्थिरता ने देश को मजबूती के बजाय कमजोर बना दिया।
शासन की असमर्थता - शीतयुद्ध ने सोवियत संघ के शासन की कमजोरियों को प्रकट किया। नेताओं की असंतोषजनक प्रशासनिक क्षमताओं, व्यवस्थापन की असमर्थता, और सामरिक बढ़ोतरी की चुनौतियों ने संघ की अस्थिरता को बढ़ाया।
विदेश नीतियों का प्रभाव - शीतयुद्ध के दौरान, विदेश नीतियों ने सोवियत संघ में तनाव बढ़ाया। पश्चिमी देशों की आर्थिक और सामरिक प्रतिस्पर्धा, आर्थिक प्रतिबंध, और आंतरदेशीय राजनीतिक मसलों ने संघ को कमजोर कर दिया।
इन सब करणों के परिणाम स्वरूप सोवियत संघ का
विघटन हो गया।
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